Saturday, 15 September 2007

एक गीत

फिर उठे नीले समंदर में ,
महकती खुशबुओं के ज्वार !
रंग उभरा कल्पनाओं में ,
घुल गया चंदन हवाओं में ,
मिल गयीं बेहोशियाँ आकर
होश की सारी दवाओं में ,
भावनाओं की उठी जयमाल के आगे ,
आज संयम सर झुकाने को हुआ लाचार !
छू लिया जो रेशमी पल ने ,
बिजलियाँ जल में लगीं जलने ,
प्रश्न सारे कर दिए झूठे
दो गुलाबों के लिखे हल ने ,
तितलियों ने आज मौसम के इशारे पर ,
फूल की हर पंखरी का कर दिया श्रंगार !
लड़खड़ाई सांस की सरगम ,
गुनगुनाकर गीतगोविन्दम,
झिलमिलाकर झील के जल में ,
और उजली हो गई पूनम !
रंग डाला फिर हठीले श्याम ने आकर,
राधिका का हर बहाना हो गया बेकार
डॉ.कीर्ति काळे

Thursday, 13 September 2007

ग़ज़ल

बड़ी मुश्किल है यारो ज़हनियत भी ,
नहीं मिल पाते अपने आप से भी !

अजब ये दौर है सब खौफ में हैं ,
कली और फूल क्या पिस्तोल तक भी !

वो एक चेहरा जो मेरे ख्वाब में है ,
कभी आएगा आख़िर सामने भी !

चलोगे जब मोहब्बत के सफ़र पर ,
तुम्हें अपना लगेगा अजनबी भी !

हुनर अहसास पर हावी हुआ ग़र ,
तो फिर दम तोड़ देगी शायरी भी !

डॉ.ब्रजेश शर्मा

Wednesday, 12 September 2007

ग़ज़ल

ज़रूरतें जो हें दरपेश कल के बारे में ,
जनाब सोचिये रद्दोबदल के बारे में !

ये कैसे बुझ गई उसके जुनूं की चिंगारी ,
सहम के सोच रहा है पहल के बारे में !

मेरा ख़ुलूस ही आख़िर मुझे बचायेगा ,
मैं जानता हूँ तुम्हारे शगल के बारे में !

न जाने मुझमें वो क्या क्या तलाश करता है ,
जो पूछता है अधूरी ग़ज़ल के बारे में !

अगर दिमाग से सोचोगे हार जाओगे ,
तुम अपने दिल ही से पूछो ग़ज़ल के बारे में !

डॉ. ब्रजेश शर्मा

Sunday, 9 September 2007

रोज़ चहरे बदलते हुये ,
जी रहे खुद को छलते हुये !
कितने जलते हुये प्रश्न हैं ,
भीगी आंखों में पलते हुये !
खो गए पांव अपने कहीँ ,
भीड़ के साथ चलते हुये !
डॉ .ब्रजेश शर्मा
पूछती एकांत में संवेदना ,
तर्क से कब हारती है भावना !
ऐक सिमटे वृत्त में जीते हुए ,
व्यर्थ है आकाश सी परिकल्पना !
प्रश्न चिन्हों से उलझती ज़िन्दगी ,
बुन रहे तुम स्वप्नदर्शी चेतना !
ज्वार - भाटों को उठाएगी जरूर ,
बूंद के विस्तार की संभावना !

ब्रजेश शर्मा
ऐसा क्यूँकर लगता है ,
बिला वज़ह डर लगता है !

इश्क में आँखें छलकें तो ,
अश्क समंदर लगता है !

उलझन का तानाबाना ,
बस अपना घर लगता है !

उसने दर्द कुबूल लिए ,
मस्त कलंदर लगता है !

ब्रजेश शर्मा

Saturday, 8 September 2007

दिमागों से हटे अब ये धुंधलका ,
बहुत इसरार है यारो ग़ज़ल का !

कोई कैसे बचे परछाईयों से ,
हमारा आज है मोहताज कल का !

जरा ऊंचाईयों से देख लीजे
ये बौनापन भी राजा के महल का !

चलो हम तुम चलें ऐसी जगह अब ,
जहाँ पर खत्म हो अहसास पल का !

ब्रजेश शर्मा
दिखा के आइना नाहक बवाल कौन करे ,
ज़मीर ज़िःबह किया अब सवाल कौन करे ?

मैं अपने आप से लड़ता हूँ ,हार जाता हूँ ,
इस हार जीत पे जश्नोमलाल कौन करे ?

अपनी खुद्दारी ही दुश्मन है ,भला क्या कीजे ,
वो मान लेगा मगर अर्ज़े हाल कौन करे ?

अपनी परछाई में दिखती हैं दरारें मुझको ,
अक्स बेजोड़ हो ऐसा कमाल कौन करे ?
ब्रजेश शर्मा


Friday, 7 September 2007

माना तनहाई में घबराए बहुत ,
खुद के भी नजदीक तो आये बहुत !

प्यास की हो जायेगी लंबी उमर ,
आस के बदल अगर छाये बहुत !

तोड़ हम पाए नहीं रिश्तों के भ्रम ,
श्लोक गीता के तो दोहराए बहुत !

क्या हुआ अब किसलिए खामोश हैं ,
लोग जो भीडों में चिल्लाये बहुत !
ब्रजेश शर्मा

तमाम तोहमतें दुनियां कि वो उठाएगा ,
अजब दीवाना है अपनी ही बात मानेगा !

तेरी वफ़ा ये तेरा ऐतबार , तेरा खुलूस ,
गुनाह से तो यक़ीनन मुझे बचा लेगा !

मेरे तमाम गुनाहों का चश्मदीद गवाह ,
मेरा ज़मीर ही मुंसिफ है , फैसला देगा !

मेरा मिजाज़ फ़कत उलझनों का मेला है ,
वो मुझ से रब्त बढ़ाकर भी और क्या लेगा !

रूह अल्फाज़ की मेरे बयान में झलके ,
मेरी ज़ुबान में कब ये शऊर आएगा !

ब्रजेश शर्मा


आंखों में नीला आकाश , पैरों में बेड़ियाँ पड़ी !
कैसी संत्रास कि घड़ी !

उड़ने को पंख हैं मगर , उड़ना निषेध हो गया ,
साँसों में ऋतु बसंत का , रहना अवैध हो गया !
बेला कि कलियाँ रक्खी , सोने के फ्रेम में जड़ी !
कैसी संत्रास कि घड़ी !

होंठ जरा गुनगुना लिए , कैसा कोहराम मच गया ,
धड़कने धड़क गयी जरा, सन्नाटा ऐक खिंच गया !
कटघरे में कर दिया खड़ा , तोहमतें लगीं बड़ी बड़ी !
कैसी संत्रास कि घड़ी !

देवी है या दासी है , तीसरा विकल्प ही नहीं ,
मानवी के स्वाभिमान का, कोई संकल्प ही नहीं !
मीरा को मौत कि सजा , हर युग में झेलनी पड़ी !
कैसी संत्रास कि घड़ी !
डॉ. कीर्ति काळे

कोवलम बीच पर

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पूज्य माता - पिताजी

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कन्याकुमारी में

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पूजा महाबलीपुरम में

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पूजा महाबलीपुरम में

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पूजा और रुनझुन

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यश और रुनझुन

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गुड़िया , पूजा ,बिट्टू ,शिट्टू।

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गीतू

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विनी

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माँ ( काकी )

Posted by Picasaमाँ
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