Sunday, 27 April 2008
Saturday, 22 March 2008
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुईकुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखाअब यंत्र सेपत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!सड़क पर चलने तक कातरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनरया सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ हैयह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरहचीज़ें उठाते हैं।....
इनसेइनसे तोवो पूना वालाइंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराताइस तरह राह चलतेठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ हैकि हमको मिला है,
और मिलते हीपूना वाला गुल खिला है।
और भी देखते हैंक्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त कादरवाज़ा खटखटायाद्वार खोला,
निकला, मुस्कुराया,दिमाग़ में होने लगी
आहटकुछ शूं-शूंकुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,गुलबदन कोनहीं लाया है।
प्रकट में बोला-ओहो!कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-भा...भी....जीया छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-होश की दवा करो श्रीमन्क्या
अण्ट-शण्ट बकते हो,भाभीजी के लिएकैसे-कैसे शब्दों काप्रयोग करते हो?
हमने सोचा-कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से हीहट रहा है।
सो फ़ैसला किया-अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरीप्रतिक्रिया नहीं करेंगे।
लेकिन अनुभव हुए नए-नएएक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।+
स्वयं नहीं निकलेवे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-मस्तक में भयंकर पीड़ा
थीअभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-बिल्कुल नहीं सोए हैंन कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथद्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज
मेंबी०ए० फ़ाइनल की क्लास
मेंएक लड़की बैठी थीखिड़की के पास में।
लग रहा थाहमारा लैक्चर नहीं सुन रही
हैअपने मन मेंकुछ और-ही-औरगुन रही है।
तो यंत्र को ऑन करहमने जो देखा,
खिंच गई हृदय परहर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तोकितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठीजो कॉपी पर उसकाचित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथपिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-फ़्रायड ने सारी बातेंठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी मेंसैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तोइतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने मेंभाषाएं बौनी हैं।
एक बार होटल मेंबेयरा
पांच रुपये बीस पैसेवापस लायापांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डालेयंत्र से आवाज़ आई-चले आते हैंमनहूस,
कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत हैकुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।
ख़ैर साहब!इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए
हैंकभी ज़हर तो कभीअमृत के घूंट पिलाए हैं।-
वह जो लिपस्टिक और पाउडर मेंपुती हुई लड़की
हैहमें मालूम हैउसके घर में कितनी कड़की है!-
और वह जो पनवाड़ी हैयंत्र ने बता दियाकि
हमारे पान मेंउसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भीअपना यंत्र लाए
थेहमें सब पता थाकौन-कौन कविक्या-क्या करके आए थे।
ऊपर से वाह-वाहदिल में कराहअगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,कुछ के सिरों में सिर्फसंयोजक का लिफ़ाफ़ा था।
ख़ैर साहब,इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
मेरे काव्य-पाठ के दौरानकई कवि मित्रएक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!
अशोक चक्रधर
मेंलगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे !
मैं आया तो चारण-जैसागाने लगा तुम्हारा आंगन;
हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ीतुम चुपचाप खड़े किस कारण ?
मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आये, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे !
मौन तुम्हारा प्रश्न चिन्ह है, पूछ रहे शायद कैसा हूं
कुछ कुछ बादल के जैसा हूं; मेरा गीत सुन सब जागे,
तुमको जैसे नींद आ गई,
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे !
तुमने मुझे अदेखा कर केसंबंधों की बात खोल दी;
सुख के सूरज की आंखों में काली काली रात घोल दी;
कल को गर मेरे आंसू की मंदिर में पड़ गई ज़रूरत
लगता है आंचल को अपने सबसे अधिक तुम ही धोओगे !
परिचय से पहले ही, बोलो, उलझे किस ताने बाने में ?
तुम शायद पथ देख रहे थे, मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!
पं. रामावतार त्यागी
जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी!
पांव तो मेरे थकन ने छील डाले,
अब विचारों के सहारे चल रहा हूं,
आंसुओं से जन्म दे–देकर हंसी को,
एक मंदिर के दीए–सा जल रहा हूं,
मैं जहां धर दूं कदम, वह राजपथ हैमत मिटाओ!
पांव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!
बेबसी, मेरे अधर इतने न खोलो,
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूं मैं,
इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से,
प्यार को हर गांव दफ़नाता फिरूं मैं,
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूंमत बुझाओ!
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!
जी रहे हो जिस कला का नाम लेकरकुछ
पता भी है कि वह कैसे बची हैसभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो,
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है,
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूंमत सुखाओ!
मैं खिलूंगा तब नयी बगिया खिलेगी!
शाम ने सबके मुखों पर रात मल दी,
मैं जला हूं¸ तो सुबह लाकर बुझूंगा,
ज़िंदगी सारी गुनाहों में बिताकर,
जब मरूंगा¸ देवता बनकर पुजूंगा,
आंसुओं को देखकर मेरी हंसी तुम–मत उड़ाओ!
मैं न रोऊं¸ तो शिला कैसे गलेगी!
इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूं
पं.रामावतार त्यागी
Friday, 21 March 2008
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कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
हुआ न कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब
हुये बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़ामोशी सदा देर से
सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से
भटकती रही यूँ ही हर बंदगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से
ग़ज़ल
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अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये
जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये
बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये
ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
दिल में न हो जुर्रत तो मुहब्बत नहीं मिलती
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती
कुछ लोग यूँ ही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं
हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती
देखा था जिसे मैं ने कोई और था शायद
वो कौन है जिस से तेरी सूरत नहीं मिलती
हँसते हुये चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत
रोने को यहाँ वैसे भी फ़ुर्सत नहीं मिलती
"निदा फाजली "
कुछ हटके-हटके चलो
वह भी क्या प्रस्थान कि जिसकी अपनी जगह न हो
हो न ज़रूरत, बेहद जिसकी, कोई वजह न हो,
एक-दूसरे को धकेलते, चले भीड़ में से-
बेहतर था, वे लोग निकलते नहीं नीड़ में से
दूर चलो तो चलो
भले कुछ भटके-भटके चलो
तुमको क्या लेना-देना ऐसे जनमत से है
खतरा जिसको रोज, स्वयं के ही बहुमत से है
जिसके पांव पराये हैं जो मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे, लेकिन इतिहास नहीं
भले नहीं सुविधा से -
चाहे, अटके-अटके चलो
जिनका अपने संचालन में अपना हाथ न हो
जनम-जनम रह जायें अकेले, उनका साथ न हो
समुदायों में झुण्डों में, जो लोग नहीं घूमे
मैंने ऐसा सुना है कि उनके पांव गये चूमे
समय, संजोए नहीं आंख में,
खटके, खटके चलो।
मुकुट बिहारी सरोज
कवि: मुकुट बिहारी सरोज
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मेरी, कुछ आदत, खराब है
कोई दूरी, मुझसे नहीं सही जाती है,
मुँह देखे की मुझसे नहीं कही जाती है
मैं कैसे उनसे, प्रणाम के रिश्ते जोडूँ-
जिनकी नाव पराये घाट बही जाती है।
मैं तो खूब खुलासा रहने का आदी हूँ
उनकी बात अलग, जिनके मुँह पर नकाब है।
है मुझको मालूम, हवाएँ ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिये दवायें ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण, गलत होते जाते हैं-
शायद युग की नयी ऋचायें ठीक नहीं हैं।
जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वह किताब भी क्या कोई अच्छी किताब है।
वैसे, जो सबके उसूल, मेरे उसूल हैं
लेकिन ऐसे नहीं कि जो बिल्कुल फिजूल हैं
तय है ऐसी हालत में, कुछ घाटे होंगे-
लेकिन ऐसे सब घाटे मुझको कबूल हैं।
मैं ऐसे लोगों का साथ न दे पाऊँगा
जिनके खाते अलग, अलग जिनका हिसाब है।
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कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है ।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है ।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है ।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में ।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो ।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम ।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
दुष्यंत कुमार
Friday, 7 March 2008
ग़ज़ल
बहारों को न वीराने में रखिये !
खुशी का रंग पैमाने में रखिये ,
तो फिर ग़म कौन से खाने में रखिये !
हमारा नाम आए या न आए ,
हमारी बात अफ़साने में रखिये !
हज़ारों दास्तानें सो रही हैं ,
क़दम आहिस्ता वीराने में रखिये ,
लकीरें पढ़ने वाला कब टलेगा ,
कहाँ तक हाथ दस्ताने में रखिये !
नशा "नज़मी" अचानक टूटता है,
बचा कर कुछ तो पैमाने में रखिये !
" अख्तर नज़मी "
Tuesday, 4 March 2008
पर हमारे बीच में है सिंधु लहराता हुआ !
शीश काटे शब्द रहते हैं तुम्हारे होंठ पर ,
लाख चेहरे हैं मगर मेरी अकेली बात के ,
दिन सुनहले हैं तुम्हारे स्वप्न तक उड़ते हुए ,
पंख हैं नोंचे हुए मेरी अँधेरी रात के ,
सिर्फ़ मेरी बात में शाकुंतलों की गंध है ,
तुम रहे खामोश मैं हर बात दोहराता हुआ !
...
छेड़कर एकांत मेरा शक्ल कैसी ले रही ,
लाल पीली सब्ज़ यादों से तराशी कतरनें ,
ला रही कैसी घुटन का ज्वार ये पुरवाइयाँ,
तेज खट्टापन लिए हैं दोपहर की फिसलनें,
भीगता हूँ गर्म तेज़ाबी लहर में द्रष्टि तक ,
वक्त गलता है तपी बौछार छ्हराता हुआ !
....
चांदनी तुमने सुला दी विस्मरण की गोद में ,
बात हम कैसे रुपहली यादगारों की करें ,
एक दहशत खोजती रहती मुझे आठों प्रहर ,
किस लहकते रंग से गमगीन रंगोली भरें ?
तुम रहे हर एक सिहरन को विदा करते हुए ,
मैं दबे तूफान अपने पास ठहराता हुआ !
...
मैं न पढ़ पाया कभी संयम नियम की संहिता ,
मैं जिया कमजोरियों से , आंसुओं से , प्यार से ,
साथ मेरे चल रहा है काल का बहरा बधिक ,
चीरता है जो मुझे हर क्षण अदेखी धार से ,
देवता बनकर रहे तुम वेदना से बेखबर ,
मैं लिए हूँ घाव पर हर घाव गहराता हुआ !
" सोम ठाकुर "
Monday, 14 January 2008
गीत
शब्द हैं सिपाही !
वे जिनके हाथों में अस्त्र हैं विचारों के ,
वे जिनकी आंखों में स्वप्न हैं बहारों के ,
वे हमसे जन्मे हैं , वे हमसे आगे हैं ,
नींद भरे निमिषों में बार बार जागे हैं ,
निश्चित गंतव्यों के ,
निश्चित हम राही !
रोटी कि आयु बड़ी छंद कि अवस्था से ,
इसीलिए शब्दों का युद्ध है व्यवस्था से ,
लाभ के अँधेरे में नाच रहे व्यापारी ,
मृत्यु के महोत्सव में रस कि ठेकेदारी ,
विष से है सराबोर
अमृत की सुराही !
वे किसी विदूषक के नकली परिहास नहीं ,
बिकी हुई संध्या के नृत्य नहीं , रास नहीं ,
भाव प्रवण धरती पर मार्च पास्ट करते हैं ,
और प्रश्न मंचों पर शान से उतरते हैं ,
मिले भले गाली , या
मिले वाहवाही !
पंडित वीरेन्द्र मिश्र
Friday, 11 January 2008
सरिता ............
उन्हीं में ढल रही हूँ मैं !
Wednesday, 2 January 2008
पूर्व परिचय भी नहीं था , आज भी हम हैं अपरिचित !
ये अछूते अधर अपनी मूकता में ही प्रकम्पित !
किन्तु जब देखा तुम्हें तो चेतना ने यह बताया ,
हाय खोई वस्तु मैं कितने दिनों में खोज पाया !
तुम न मानो ! जग न माने ! किन्तु मन तो कह रह है ,
मैं तुम्हें पहचानता हूँ !
श्री शिव मंगल सिंह " सुमन "
ग़ज़ल
समंदर में तो उतरेंगे समंदर देखने वाले !
यही अंजाम है इनका , यही इनका मुकद्दर है ,
बुझे जाते अपने आप , जलकर देखने वाले !
लकीरें कुछ बतातीं हैं , नतीजा कुछ निकलता है ,
बड़े हैरान हैं मेरा मुकद्दर देखने वाले !
मदन मोहन दानिश
सूरज के हस्ताक्षर " गीत "
इस वक़्त सुबह के आमंत्रण पर हैं !
पहचानो सूरज के हस्ताक्षर हैं !