Tuesday, 4 March 2008

तुम रहे हो द्वीप जैसे , मैं किनारे सा रहा ,
पर हमारे बीच में है सिंधु लहराता हुआ !
शीश काटे शब्द रहते हैं तुम्हारे होंठ पर ,
लाख चेहरे हैं मगर मेरी अकेली बात के ,
दिन सुनहले हैं तुम्हारे स्वप्न तक उड़ते हुए ,
पंख हैं नोंचे हुए मेरी अँधेरी रात के ,
सिर्फ़ मेरी बात में शाकुंतलों की गंध है ,
तुम रहे खामोश मैं हर बात दोहराता हुआ !
...
छेड़कर एकांत मेरा शक्ल कैसी ले रही ,
लाल पीली सब्ज़ यादों से तराशी कतरनें ,
ला रही कैसी घुटन का ज्वार ये पुरवाइयाँ,
तेज खट्टापन लिए हैं दोपहर की फिसलनें,
भीगता हूँ गर्म तेज़ाबी लहर में द्रष्टि तक ,
वक्त गलता है तपी बौछार छ्हराता हुआ !
....
चांदनी तुमने सुला दी विस्मरण की गोद में ,
बात हम कैसे रुपहली यादगारों की करें ,
एक दहशत खोजती रहती मुझे आठों प्रहर ,
किस लहकते रंग से गमगीन रंगोली भरें ?
तुम रहे हर एक सिहरन को विदा करते हुए ,
मैं दबे तूफान अपने पास ठहराता हुआ !
...
मैं न पढ़ पाया कभी संयम नियम की संहिता ,
मैं जिया कमजोरियों से , आंसुओं से , प्यार से ,
साथ मेरे चल रहा है काल का बहरा बधिक ,
चीरता है जो मुझे हर क्षण अदेखी धार से ,
देवता बनकर रहे तुम वेदना से बेखबर ,
मैं लिए हूँ घाव पर हर घाव गहराता हुआ !
" सोम ठाकुर "