कविता कि सेना में
शब्द हैं सिपाही !
वे जिनके हाथों में अस्त्र हैं विचारों के ,
वे जिनकी आंखों में स्वप्न हैं बहारों के ,
वे हमसे जन्मे हैं , वे हमसे आगे हैं ,
नींद भरे निमिषों में बार बार जागे हैं ,
निश्चित गंतव्यों के ,
निश्चित हम राही !
रोटी कि आयु बड़ी छंद कि अवस्था से ,
इसीलिए शब्दों का युद्ध है व्यवस्था से ,
लाभ के अँधेरे में नाच रहे व्यापारी ,
मृत्यु के महोत्सव में रस कि ठेकेदारी ,
विष से है सराबोर
अमृत की सुराही !
वे किसी विदूषक के नकली परिहास नहीं ,
बिकी हुई संध्या के नृत्य नहीं , रास नहीं ,
भाव प्रवण धरती पर मार्च पास्ट करते हैं ,
और प्रश्न मंचों पर शान से उतरते हैं ,
मिले भले गाली , या
मिले वाहवाही !
पंडित वीरेन्द्र मिश्र