Monday, 14 January 2008

गीत

कविता कि सेना में

शब्द हैं सिपाही !


वे जिनके हाथों में अस्त्र हैं विचारों के ,

वे जिनकी आंखों में स्वप्न हैं बहारों के
,

वे हमसे जन्मे हैं , वे हमसे आगे हैं ,

नींद भरे निमिषों में बार बार जागे हैं ,


निश्चित गंतव्यों के ,

निश्चित हम राही !



रोटी कि आयु बड़ी छंद कि अवस्था से ,

इसीलिए शब्दों का युद्ध है व्यवस्था से ,

लाभ के अँधेरे में नाच रहे व्यापारी ,

मृत्यु के महोत्सव में रस कि ठेकेदारी ,


विष से है सराबोर

अमृत की सुराही !


वे किसी विदूषक के नकली परिहास नहीं ,

बिकी हुई संध्या के नृत्य नहीं , रास नहीं ,

भाव प्रवण धरती पर मार्च पास्ट करते हैं ,

और प्रश्न मंचों पर शान से उतरते हैं ,


मिले भले गाली , या

मिले वाहवाही !


पंडित वीरेन्द्र मिश्र