Monday, 14 January 2008

गीत

कविता कि सेना में

शब्द हैं सिपाही !


वे जिनके हाथों में अस्त्र हैं विचारों के ,

वे जिनकी आंखों में स्वप्न हैं बहारों के
,

वे हमसे जन्मे हैं , वे हमसे आगे हैं ,

नींद भरे निमिषों में बार बार जागे हैं ,


निश्चित गंतव्यों के ,

निश्चित हम राही !



रोटी कि आयु बड़ी छंद कि अवस्था से ,

इसीलिए शब्दों का युद्ध है व्यवस्था से ,

लाभ के अँधेरे में नाच रहे व्यापारी ,

मृत्यु के महोत्सव में रस कि ठेकेदारी ,


विष से है सराबोर

अमृत की सुराही !


वे किसी विदूषक के नकली परिहास नहीं ,

बिकी हुई संध्या के नृत्य नहीं , रास नहीं ,

भाव प्रवण धरती पर मार्च पास्ट करते हैं ,

और प्रश्न मंचों पर शान से उतरते हैं ,


मिले भले गाली , या

मिले वाहवाही !


पंडित वीरेन्द्र मिश्र

Friday, 11 January 2008

सरिता ............


निरंतर चल रही हूँ मैं ,
जहाँ जैसी मिली राहें
उन्हीं में ढल रही हूँ मैं !
निरंतर चल रही हूँ मैं !
किसी पर्वत के अंतर में ,छिपी बन नीर का सोता ,
मिली जो संधि पत्थर में , वहीं उदगम मेरा होता ,
उछालती चल पड़ी नीचे , बढ़ाया वेग बन झरना ,
मुझे आगे बहुत प्यासी धरा का ताप है हरना ,
मेरी गति है मेरा शोधन
तभी निर्मल रही हूँ मैं!
कहीं ऊँचा ,कहीं नीचा ,मेरा पथ है बड़ा दुर्गम ,
कहीं पाषाण खंडों ने ,लिए अवरोध के परचम ,
कहीं मिलती धरा बंजर , कहीं फैले हुए जंगल ,
कभी मैं गाँव से गुजरी , कहीं मीलों मिले जंगल ,
धरा कि गोद में गिरती
संभलती पल रही हूँ में !
मिलें अवरोध कितने ही , मुझे रुकना नहीं आता,
किसी पत्थर के क़दमों में मुझे झुकना नहीं आता ,
नुकीले पत्थरों को मैं , सुघर शिवलिंग बनाती हूँ ,
अकेली राह चलती हूँ , मैं छल छल गुनगुनाती हूँ ,
कभी गंभीर हो रहती ,
कभी चंचल रही हूँ मैं !
मेरा तो धर्म है धरती के जीवन को ही सरसाना ,
जहाँ होकर निकल जाऊँ , वहीं आनंद बरसाना ,
कहीं नन्हा कोई अंकुर कि कोई पेड़ हो वट का ,
कोई पशु हो कि पंछी हो, मुसाफिर हो कोई भटका ,
सभी कि प्यास समता से
बुझाती चल रही हूँ मैं !
अभी तो दूर है मंजिल , जहाँ मुझको पहुंचना है ,
जहाँ जाकर मुझे सागर की बाँहों में सिमटना है ,
उसी विस्तार में खोकर , उसी का अंग बन जाऊँ ,
उसी का रूप ले लूँ मैं , उसी का रंग मैं पाऊँ ,
मैं सरिता हूँ समंदर के
लिए बेकल रही हूँ मैं !
मेरा तो धर्म है बहना
अनवरत बह रही हूँ मैं !
निरंतर चल रही हूँ मैं , निरंतर चल रही हूँ मैं !
--- सरिता शर्मा

Wednesday, 2 January 2008

मैं तुम्हें पहचानता हूँ !

पूर्व परिचय भी नहीं था , आज भी हम हैं अपरिचित !
ये अछूते अधर अपनी मूकता में ही प्रकम्पित !

किन्तु जब देखा तुम्हें तो चेतना ने यह बताया ,

हाय खोई वस्तु मैं कितने दिनों में खोज पाया !

तुम न मानो ! जग न माने ! किन्तु मन तो कह रह है ,

मैं तुम्हें पहचानता हूँ !

श्री शिव मंगल सिंह " सुमन "

ग़ज़ल

समंदर के तमाशाई हैं मंज़र देखने वाले ,
समंदर में तो उतरेंगे समंदर देखने वाले !

यही अंजाम है इनका , यही इनका मुकद्दर है ,
बुझे जाते अपने आप , जलकर देखने वाले !

लकीरें कुछ बतातीं हैं , नतीजा कुछ निकलता है ,
बड़े हैरान हैं मेरा मुकद्दर देखने वाले !

मदन मोहन दानिश

सूरज के हस्ताक्षर " गीत "

कहने को तो हम आवारा स्वर हैं ,

इस वक़्त सुबह के आमंत्रण पर हैं !
हम ले आये हैं बीज उजाले के ,

पहचानो सूरज के हस्ताक्षर हैं !
वह अपना ही मधुवंत कलेजा था , जो कुटियों में भी सत्य सहेजा था !
प्यासे क्षण में जो तुम्हें मिल होगा , वह मेघदूत हमने ही भेजा था !
उजली मंजिल का परिचय पाने को,हम दिलगीरों से नज़र मिलाने को !
माथे को ज्यादा ऊँचा क्या करना , हम धरती पर ही बैठे अम्बर हैं !
हम राही अनदेखी राहों वाले ,
अमृत घट तक लंबी बाँहों वाले,
ज्वालामुखियों की आग बता देगी ,
हम हैं कैसे अंतर्दाहों वाले !
अपना तेवर मंगलाचरण का है , हम उठे समय का माथा ठनका है ,
अंधी उलझन के वक़्त चले आना , हम प्रश्न नहीं हैं केवल उत्तर हैं !
ये सांसें ऐसी गंध संजोती हैं ,
जो सदियाँ हमसे चंदन होतीं हैं,
ये और बात सीपी में बंद रहे ,
वैसे हम जन्मजात ही मोती हैं !
हम कालजयी ऐसी भाषा सीखे
जिस युग में दीखे आबदार दीखे ,
दूसरा और आकार न स्वीकारा, हम एक बूँद में सिमटे सागर हैं !
कवि श्री सोम ठाकुर