जिसे दुश्मन समझता हूँ ,वही अपना निकलता है ! हर एक पत्थर से मेरे सर का ,कुछ रिश्ता निकलता है !! डरा धमका के तुम हमसे वफ़ा करने को कहते हो ! कहीँ तलवार से भी पाँव का कांटा निकलता है !! जरा सा झुटपुटा होते ही छूप जाता है सूरज भी ! मगर एक चांद है जो शब् में भी तनहा निकलता है !!
इस सदन में, मैं अकेला ही दिया हूँ , मत बुझाओ जब मिलेगी रौशनी मुझ से मिलेगी
जी रहे हो जिस कला का नाम लेकर , कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है , सभ्यता कि जिस अटारी पर खड़े हो , वो हमीं बदनाम लोगों ने रची है .